हमे कर्मों का नही बल्कि भावों का फल मिलता हैं।
मित्रों आज तक हम सुनते आये है कि हमें कर्मो का फल मिलता हैं।
पर गलत हमें कर्मो का नहीं बल्कि भावों का फल मिलता हैं। कर्म तो मात्र एक साधन है फल तक पंहुचने का।
आइये एक कहानी द्वारा आपको कर्मो के फलों को बदलने का राज बताता हूँ।
मित्रों एक समय की बात है एक सन्यासी अपनी कुटिया के बाहर
बैठकर रोज परमात्मा का ध्यान लगाता था। उसकी कुटिया के सामने एक वेश्या का
भी घर था।
सन्यासी रोज वेश्या के कर्मो को देखकर दिनभर मन ही मन यह
विचार करता की देखो ये कितना नीच कर्म कर रही है और ईश्वर द्वारा मिली इस
देह को पाप कर्म में लिप्त कर अपना नरक बना रही हैं।
वही दूसरी और वो वेश्या सन्यासी को रोज भगवान् का ध्यान लगाते
देख यह चिंतन करती थी की देखो साधू महात्मा कितने पुण्यशाली हैं जो हमेशा
भगवान् के ध्यान में लीन रहते हैं।
पूरे जीवन काल तक दोनों का चिंतन एक दूसरे के प्रति ऐसा ही
बना रहा। मरणोपरांत जब दोनों ऊपर जाते है तब भगवान् अपने दूतों से वेश्या
को स्वर्ग भेजने का और साधू को नरक में डालने का फैसला सुनाते हैं।
भगवान् का फैसला सुनकर साधू, भगवान् से कहता है कि प्रभु इस
वेश्या ने जीवन भर अपनी देह को पाप कर्मो में लगाए रखा और मैंने जीवन भर इस
देह को आपके ध्यान में लगाके रखा, फिर इसे स्वर्ग और मुझे नरक क्यों ?
भगवान् ने कहा साधू महात्मा आपका कथन बिल्कुल सत्य है। आपने
जीवन भर अपनी देह को जप और ध्यान में लगाये रखा। परन्तु तन से भले ही आप
मेरा नाम जप रहे थे, पर आपका मन और मानसिक ध्यान तो हमेशा वेश्या के पाप
कर्मो के चिंतन में लगा रहता था। वहीँ दूसरी और ये वेश्या रोज आपको देखकर
एक हीं चिंतन करती थी कि साधू महात्मा कितने पुण्यशाली है जो हमेशा भगवान्
का ध्यान लगाते है। और आप हीं को देखकर ये निरंतर मेरा ध्यान करती थी।
महात्मा जी कर्म भले ही अच्छे हो, पर अगर आपका "ध्यान" संसार की बुराइयों में है, आपके मन के भाव बुरे है, तब तक मुक्ति संभव नही।
महात्मा जी मंदिर में आकर लोग मुझे कितने हीं हाथ जोड़ले,
दंडवत करले, प्रसाद चढ़ाले या और भी मुझे रिझाने के कोई कर्म करले, पर में
वो कुछ नही देखता, में तो इतना कुछ करने के बाद भी उनके कर्म के पीछे छुपे
मन के भावों को हीं देखता हूँ और उन्ही भावों के अनुसार उसके कर्म करते हीं
फल देता हूँ।
महात्मा जी लोग भले हीं रोज मंदिर जाते हो, परन्तु ये जरुरी
नही की वे सुखी हो पायेंगे। क्योकि इस कलयुग में अधिकतर लोग अपने स्वार्थ
सिद्धि हेतु मन में बुरे भाव रखकर मुझे रिझाने का प्रयास करते हैं। हाथ
मुझे जोड़ते है और मन से किसी और को कोसते हैं। पर में तो कर्म के सिद्धांतो
की मर्यादा से बंधा हूँ.... इसलिये जैसे ही किसी ने हाथ पैर जोड़ने का कर्म
किया, बस फिर में उसके मन के भावों के अनुरूप उसे फल देने को मजबूर हूँ।
---------------------
मित्रों इस कहानी से तात्पर्य ये हैं कि भगवान हमें कर्मो का नही बल्कि भावों का फल देते हैं। कर्म तो मात्र फल तक पंहुचने का एक साधन हैं।
---------------------
मित्रों इस कहानी से तात्पर्य ये हैं कि भगवान हमें कर्मो का नही बल्कि भावों का फल देते हैं। कर्म तो मात्र फल तक पंहुचने का एक साधन हैं।
जैसे सीता हरण और रुकमनी हरण दोनों कर्म एक जैसे थे, परन्तु भाव अलग-अलग होने के कारण दोनों के फल भी भिन्न-भिन्न थे।
जैसे कोई व्यक्ति किसी पर लाठी चार्ज करे तो उसको जेल में डाल
दिया जाता हैं। पर इसकी जगह अगर पुलिस वाले लाठी चार्ज करे तो उन्हें कोई
जेल में नही डालता बल्कि प्रमोशन दिया जाता हैं। आखिर दोनों के कर्म एक से
होते हुए भी फल भिन्न-भिन्न क्यों ? वो इसलिये की उस व्यक्ति का भाव हिंसा
फैलाने का था और पुलिस का भाव हिंसा मिटाने का था।
तो मित्रों देखा दो लोगों ने एक ही तरह के कर्म किये फिर भी
उनके फल भिन्न-भिन्न मिले। फिर आप कैसे कह सकते है कि हमें कर्मो का फल
मिलता हैं। कर्म तो मात्र एक साधन है, फल तक पहुँचने का। बाकि फल का
निर्धारण तो आपके भाव के साथ ही हो जाता हैं।
इसलिए मित्रों में इस बात का खंडन करता हूँ कि हमें कर्मो का फल मिलता हैं।हमें कर्मो का नही बल्कि भावों का फल मिलता हैं।
मित्रों इस कर्म के सिद्धांत को अगर आप समझ गए हैं तो आज से
ही अपने हर कर्म को अच्छे भावों से जोड़ दीजिये। ऐसा करने से निश्चित हीं
आपको कम समय में और न्यून परिश्रम में ही अच्छे परिणामों की प्राप्ति होने
लगेगी।
We are grateful to Mr. Gopal Arora ji for compiling "हमे कर्मों का नही बल्कि भावों का फल मिलता हैं" sharing with us.
Superb sir,
ReplyDeleteThis post cleard all my concept towards karma.
Thanks a lot
May God bless you